ईमानदारी का फल - Imandari Ka Fal Kahani
छोटे से शहर मालीपुर में अर्जुन नाम का एक बारह वर्षीय लड़का अपनी माँ के साथ रहता था। पिता के निधन के बाद घर की ज़िम्मेदारी उसकी माँ के कंधों पर आ गई थी, जो दिन-रात सिलाई करके मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटाती थीं। एक शाम, स्कूल से लौटते हुए अर्जुन की नज़र सड़क किनारे पड़े काले बटुए पर पड़ी। उसने उसे उठाया और खोलकर देखा—अंदर पाँच हज़ार रुपये और एक व्यक्ति का आधार कार्ड था।
अर्जुन का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। इतने पैसे से वह अपनी माँ के लिए नई साड़ी किताबें और घर का किराया चुका सकता था। पर तभी उसे माँ की आवाज़ याद आई बेटा, ग़रीबी में भी ईमानदारी नहीं छोड़नी चाहिए। उसने ठान लिया—बटुआ वापस करना है।
आधार कार्ड पर लिखे पते पर पहुँचकर अर्जुन ने दरवाज़ा खटखटाया। एक बुज़ुर्ग व्यक्ति, श्री शर्मा, ने दरवाज़ा खोला। अर्जुन ने बटुआ थमाते हुए कहा, "यह आपका है न?" शर्मा साहब की आँखें चमक उठीं—वह बटुआ उनकी बेटी का तोहफ़ा था, जो विदेश में रहती थी।
धन्यवाद, बेटा! तुम्हारी ईमानदारी ने मेरा विश्वास बहाल किया उन्होंने गदगद स्वर में कहा और अर्जुन को हज़ार रुपये इनाम दिए। अर्जुन ने इनकार किया, पर शर्मा साहब ने ज़बरदस्ती थमा दिए।
घर पहुँचकर अर्जुन ने सारी बात माँ को बताई। माँ ने गर्व से उसे गले लगा लिया। उन हज़ार रुपयों से माँ ने सिलाई मशीन की मरम्मत करवाई, जिससे काम आसान हो गया। कुछ हफ़्तों बाद शर्मा साहब ने अर्जुन की माँ को अपने दफ़्तर में स्थायी नौकरी दे दी।
अर्जुन समझ गया—ईमानदारी कभी व्यर्थ नहीं जाती। उस दिन उसने न सिर्फ़ एक बटुआ, बल्कि अपने चरित्र की असली कीमत पहचानी।
शिक्षा: सत्य और ईमानदारी की राह कठिन हो सकती है, पर इसका फल हमेशा मीठा होता है।